Tuesday, November 9, 2010

है खेल अज़ाब यह ज़िंदगी


है खेल अज़ाब यह ज़िंदगी
हू एक हसीं खुवाब थी
एक पहेली है यह ज़िंदगी
क्या व्हो एक बेवफा थी

सहेली थी व्हो मोहब्बत की
उसकी मोहब्बत बेवफा थी
दोष था किसी और का
हुई मीठी खाख व्हो परी
आजा समेट लूँ बाहों में
मेरी ज़िंदगी की है तू हँसी
अश्कों से मिटा दे वोह यादें
वो दर्द की महकती काली
इस दिल की है सरताज तू
बिन तेरे फिरू मैं गली गली
बेवफा एक बार मुस्कुरा दे
लगे तेरे दिल में कभी तो मैं थी

2 comments:

  1. दूर तक जिसकी नज़र चुपचाप जाती ही नहीं
    हम समझते हैं समीक्षा उसको आती ही नहीं

    आपका पिंजरा है दाना आपका तो क्या हुआ
    आपके कहने से चिड़िया गुनगुनाती ही नहीं

    भावना खो जाती है शब्दों के जंगल में जहाँ
    शायरी की रोशनी उस ओर जाती ही नहीं

    आप कहते हैं वफ़ा करते नहीं हैं इसलिए
    जिस नज़र में है वफ़ा वह रास आती ही नहीं

    झाड़ियों में आप उलझे तो उलझकर रह गए
    आप तक बादे सबा जाकर भी जाती ही नहीं

    शेर की दोस्तों अभी भी शेरीयत है ज़िंदगी
    इसके बिना कोई ग़ज़ल तो गुदगुदाती ही नहीं

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  2. Kya baat hai miss,aap bhut acha likhti hai,yuhi nirantar likhti rahe,bhut sundar bhavna....meri kavitaye mere blogg "kaavya kalpna" ke atirikat "hindi sahitya manch" par v har monday & friday prakasit..aap aaye aur mera maargdarshan kare.

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